Sunday, December 14, 2014

फिर वही बहस.....??......नहीं, मात्र एक जिज्ञासा...... (06.09.2011)

मैं एक आस्तिक और पक्का-विश्वासी (Strong Believer) व्यक्ति हूँ......(हालाँकि अपने विश्वास और अपनी आस्तिकता के लिये मेरे पास समुचित कारण व तर्क नहीं हैं).........फिर भी एक मित्र  ने ज़िक्र छेड़ा तो मैंने सोचा कि अपनी जिज्ञासा सबके सामने रख ही दूँ.

आस्तिक और विश्वासी लोग मानते हैं कि ईश्वर स्वयंभू, अनादि और अनन्त है और उसी ने यह दुनिया बनाई है जबकि नास्तिकों व तर्कशास्त्रियों (Atheists & Rationalists) का प्रश्न है कि यह संसार स्वयंभू, अनादि और अनन्त क्यों नहीं हो सकता ?

 नास्तिक व तर्कशास्त्री यह मानते हैं कि यह संसार, ईश्वर की रचना नहीं है बल्कि खुद ईश्वर ही मनुष्य द्वारा गढ़ा गया काल्पनिक आसरा है जो उसे अपनी असीमित कल्पनाओं, आकाँक्षाओं तथा सीमित क्षमताओं के बीच ताल-मेल बैठाने के लिए ज़रूरी लगता है........सच क्या है ?

कोई व्यक्ति महत्वपूर्ण है या मुद्दा ?

    अपना सवाल था कि - "समर्थन या विरोध, मुद्दों पर आधारित होना चाहिए या व्यक्ति पर ?"


    जवाब मिला कि - "पिछले सालभर से तो व्यक्ति ही मुद्दा है, समर्थक और विरोधी दोनों वर्गों के लिए ।"

क्या है, आगरा का सच ??

    एक तरफ़ तो ख़बर यह है कि आगरा में धर्म-परिवर्तन हुआ ही नहीं, और दूसरी तरफ़ धर्म-परिवर्तन का विरोध भी हो रहा है !.....यह क्या बात हुई ? जब कुछ हुआ ही नहीं तो विरोध किस बात का ?

    अगर ड्रामेबाज़ी का विरोध हो रहा है, तो विरोध के तरीक़े से बहुसंख्यक समाज को यह मैसेज भी जा रहा है कि सिर्फ़ हिन्दुत्व की तरफ़ convert होने पर ही हल्ला मचता है ।

    -यानि, ग़ैर-हिन्दुओं सहित बाक़ी सभी के 'सेक्युलरिज़्म' को कटघरे में लाने की 'संघ-परिवार' की मुहिम बहुत कुछ हद तक सफल कही जा सकती है ।

    (ध्रुवीकरण के लिए फ़िलहाल इतना काफ़ी है)

मध्यम वर्गीय "त्रिशंकु" (30.11.2011)

अमीरी और ग़रीबी के बीच की खाई बढ़ती जा रही है

लेकिन उस खाई में गिर कौन रहा है..?

मुझ जैसा एक आदमी

जो ग़रीब के लिए अमीर है और

अमीर के लिए ग़रीब

(ऐसा इसलिए कि जो वास्तव में ग़रीब है

वह तो अमीर के लिए आदमी ही नहीं है न !!)

मुझ जैसा आदमी ही है

अमीर के उपहास

और ग़रीब की ईर्ष्या का पात्र

अमीर और ग़रीब अपनी-अपनी जगह पर सलामत हैं

उनकी पोज़ीशन को कोई ख़तरा नहीं

क्योंकि एक को थोड़ा सा कुछ खोने से कोई फ़र्क़ नहीं

और दूसरे के पास खोने को अब कुछ बचा ही नहीं...!!

दोनों के सभी ग्रह बलवान हैं

इन दोनों अलग अलग शिखरों के बीच है एक गहरी खाई,

जिसमें खुद को गिरने से बचाने का प्रयास करता हुआ

लटका है मुझ जैसा एक आदमी

इज़्ज़त नाम की किसी चीज़ से बना पैराशूट लिये

जिसको युगों से थामे हुए थकने लगे हैं उसके हाथ

लेकिन उसने छोड़ा नहीं, क्योंकि इसी पर तो

जीवन सही सलामत टिका है उसका !

इसको छोड़कर न जाने किस गहराई में गिरना होगा

इस भय ने परेशान कर रखा है उसको

कभी कभी सोचता है वह कि छोड़ ही दे

यह पैराशूट और गिर जाने दे ख़ुद को

खाई में, जहाँ और कुछ नहीं तो

मिल ही जाएगी उसको भी

अब और कुछ खोने के भय से मुक्ति का एहसास

दिलाती एक ‘पूस की रात’,

आराम से पैर सिकोड़ कर

हमेशा के लिए सो जाने को.....!!

"ईद मुबारक" (07.11.2011)

आज "ईदुज़्जुहा" अर्थात बक़रीद (या बोलचाल की भाषा में कहें तो 'बकरा-ईद') है. सभी जानते हैं कि 'पवित्र क़ुरआन' में वर्णित ईश्वरीय वचनानुसार इसे 'क़ुर्बानी के दिवस' के रूप में  मुसलमानों के द्वारा मनाया जाता है.
मेरी जिज्ञासा यह है कि यह दिवस किसी भी रूप में यहूदियों और ईसाइयों के द्वारा क्यों नहीं मनाया जाता जबकि हज़रत अब्राहम (इब्राहिम) के ईश्...वर में अटूट विश्वास व उनके द्वारा ईश्वरीय आज्ञा के पालन की कथा (कुछ प्रकारान्तर के साथ) 'पवित्र बाइबिल' के ओल्ड-टेस्टामेंट में भी है जो कि यहूदियों और ईसाइयों का 'आधार-ग्रंथ' है....!!..........जिन्हें मालूम हो, कृपया बताएँ.....साथ ही हो सके तो यह भी बताएँ कि – “क़ुर्बानी से सम्बंधित ईश्वरीय आदेश व मोमिनों की आस्था के पालन में क्या पशु-बलि की अनिवार्यता पर ज़ोर दिया गया है ?”.................(मैंने सिर्फ़ जिज्ञास-वश ये बातें पूछी हैं....किसी धार्मिक-आस्था को शंका की दृष्टि से देखने या ठेस पहुँचाने का आशय नहीं है).

"याहू"......"याssssssहू".....शायद यह बात फ़ालतू सी लगे...!! (17.03.2012)

यूरेका.......यूरेका........”याहू” की खोज हो गई......!!.....मैंने ढूँढा अभी-अभी (शम्मीकपूर की मदद से...)......कैसे....??.........अभी बताता हूँ.....


एक फ़िल्मी मान्यता है कि फ़िल्म “जंगली” के गीत – “चाहे कोई मुझे जंगली कहे..” में समाविष्ट “याssssssहू” ने ‘शम्मीकपूर’ के कैरियर को एक नई दिशा दी थी.....इसके बारे में कई क़िस्से सुनने / पढ़ने को मिले थे....जैसे कि – “इस गीत की ऐन रिकॉर्डिंग के वक़्त संगीतकार शंकर ने मोहम्मद रफ़ी को यह शब्द (याहू) दिया था...”.....यह बात किसी फ़र्ज़ी टाइप के पत्रकार ने संगीतकार शंकर के निधन के समय अपने ‘श्रद्धांजलि-वक्तव्य’ में मनगढ़ंत रूप से जोड़ी थी.....ऐसे ही और भी वक्तव्य समय-समय पर फ़र्ज़ी टाइप के पत्रकारों द्वारा दिये जाते रहे, जिनका कोई आधार नहीं था....फ़र्ज़ी टाइप के पत्रकारों से मेरा आशय उन लोगों से है जो तथ्यहीन बातें अधिक करते हैं.....और जिनकी “स्थाई-टेक” रहती है – “आपको कैसा लग रहा है...??”


ख़ैर.......तो बात हो रही थी “याहू” की, कि यह किसकी ईज़ाद है ? मैं कई सालों से समझता था कि इस प्रश्न का सबसे प्रामाणिक उत्तर देने वाले (शंकर-जयकिशन, शैलेंद्र और मोहम्मद रफ़ी) तो इस दुनिया में हैं नहीं...तो क्या अब मनगढ़ंत ख़बरों पर ही यक़ीन करना होगा ?


सत्य की खोज में आज से कोई छ: महीने पूर्व मैंने “गूगल-सर्च द्वारा ‘शम्मीकपूर+शंकर-जयकिशन’ को ढूँढा था.....वह शम्मीकपूर का एक पुराना इण्टरव्यू था जिसमें उन्होंने बताया था कि –“फ़िल्म तुमसा नहीं देखा’ में उनके मस्ती के दृष्यों में बोला गया शब्द याहू’ उनके दिमाग़ में था और जब जयकिशन ने फ़िल्म जंगली के गीत “चाहे कोई मुझे जंगली कहे....” की धुन फ़ायनल करके गीत सुनाया तो शम्मीकपूर ने जयकिशन से कहा कि मेरे दिमाग़ में ‘तुमसा नहीं देखा’ का एक मस्ती भरा बोल “याहू” गूँज रहा है...इसे कहीं फ़िट करो...”


इस तरह से “याssssहू” लाइट में आया और ज़माने पर छाया.....


इन सब बातों ने मेरे जिज्ञासु मन में यह खलबली मचाई कि फ़िल्म “तुमसा नहीं देखा” में “याहू” किस सीन में है...?...इस जिज्ञासा ने (जो शायद आपको फ़ालतू सी लगे !) मुझे बाध्य किया कि मैं उस फ़िल्म को डाउनलोड करूँ.....वही मैंने दो दिन पहले किया और अभी कुछ देर पहले देखा कि – नायिका का पीछा करते हुए, शम्मीकपूर ने नायिका के ग़ुस्सैल उलाहने के जवाब में उछलकर कहा “याहू....”


......और मैंने ख़ुशी का इज़हार किया.....”यूरेका”.....”यूरेका”......





  

वामपंथी विचारधारा बनाम राजनीति

मैं परेशान हूँ, अपने कुछ प्यारे भाईयों  की परेशानी देखकर.....कभी कोई कम्युनिट-नेता दलितों को मन्दिर ले जाता है तो परेशान हो जाते हैं...!....कभी कोई कम्युनिस्ट-नेता हज करने चला जाता है तो भी उनकी तरफ़ से बहुत तल्ख़ प्रतिक्रिया आती है...!!....अरे ज़नाब, क्या आप जानते नहीं कि "भारत में 'कम्युनिस्ट-विचारधारा' और 'कम्युनिस्ट-राजनीति' दोनों अलग-अलग आइटम्स ह...ैं...??".....और क्या यह कटु यथार्थ भी आपको पता नहीं कि "हमारे महान प्रजातंत्र में राजनीति की दुकान, 'जातिवाद' और 'धर्म' के सहारे ही चलती है"......??......जो दलितों को मन्दिर ले जाते हैं या सजदे का टीका धारण करते हैं, तीरथ और हज पर जाते हैं उनको अपनी राजनीति भी सम्हालनी है कि नहीं....??......क्या जातिवाद और साम्प्रदायिकता के खेल खेलने का ठेका सिर्फ़ काँग्रेस, बीजेपी, मुलायम, लालू और मायावती ने ले रखा है....??.......कॉमरेड ज्योति बसु ने एक चौथाई सदी से ज़्यादा का अपना राजपाट क्या मार्क्स के सिद्धांतों के दम पर चलाया था ?......नहीं....ज्योति दा ने अपनी राजनीति को विशुद्ध काँग्रेसी स्टाइल में चलाया था.......उनके कम्युनिस्ट वोटरों ने 'काली-पूजा', नमाज़, तीरथ या हज का त्याग नहीं किया.....और फिर वामपंथी विचारधारा को सम्हालने की ज़िम्मेदारी को इस देश में अच्छे-अच्छे लेखकों ने ले तो रखी है....!!.....फिर नेतागण क्यों परेशान हों....??.......but, still If you feel that the act of Communist Leaders is a failure of Communism in this country, solution of your PARESHANI is to simply ACCEPT IT....!! .......बाक़ी फिर कभी......अभी इसी बात पर मित्रगण अपनी प्रतिक्रिया दें......कटु-प्रतिक्रिया का भी स्वागत है क्योंकि आज ही विचार उत्पन्न हुआ कि "दोस्तों की तल्ख़ी ही सबसे मधुर होती है..."