बरसों के बाद होली के दिन अपने गृहनगर स्थित पैतृक-निवास में रहना एक पुरसुकून अनुभव था. बाद में दोपहर के वक़्त, फ़ूफाजी की बैठक में गप-शप के दौरान बार-बार मेरी निगाह कुछ तस्वीरों पर पड़ती रही. ये तस्वीरें उन बुज़ुर्गों की थीं जिनकी गरिमामय उपस्थिति से वह बैठक कभी आबाद रहा करती होगी.
मैंने सहसा चर्चा छेड़ी कि घर के विभिन्न हिस्सों में (ख़ासतौर से बैठकों में) पूर्वजों की तस्वीरें क्यों लगाई जाती हैं ? पिछली तीन-तीन पीढ़ियों के लोग (जिनके बारे में हम उनके नाम के अलावा बहुत कम जानते हैं...)......इन तस्वीरों में से झाँक-झाँक कर हमसे क्या कहते हैं ?
फ़ूफाजी ने बताया – “इन तस्वीरों में से झाँककर ये पूर्वज हमसे कहते हैं कि यह सारी सम्पत्ति, ये सब ठाठ-बाट हमारे साथ नहीं गए, तुम्हारे साथ भी नहीं जाएँगे.....इसलिए न तो इस सम्पत्ति के सुख को भोगने पर इतराना और न ही इसके लिए अपनों से कोई विवाद करना”.....
यह बात तो मैंने सोची भी नहीं थी लेकिन इस विचार के साथ असहमति का भी तो कोई प्रश्न नहीं था...!!
Saturday, March 10, 2012
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बहुत बढिया विचार हैं। बधाई।
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